आयोजकों में शामिल एक भारतीय अमरीकी संस्था टेक्सस इंडिया फ़ोरम ने एक बयान में कहा, "अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ-साथ अमरीका की डेमोक्रेटिक
और रिपब्लिकन दोनों पार्टियों के कई सांसद, कई प्रांतों के गवर्नर और कई मेयर और अन्य अधिकारी गण भी हाउडी मोदी में शामिल होंगे."
ह्यूस्टन में मोदी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें हज़ारों लोगों के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है.
कश्मीर के मुद्दे पर और मोदी सरकार की अल्पसंख्यकों के प्रति नीतियों के खिलाफ़ विरोध करने वालों में बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग और पाकिस्तानी मूल के लोगों के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है.
पाँच अगस्त को कश्मीर में अनुच्छेद 370 को ख़त्म किए जाने के बाद से वहां संचार माध्यमों और मोबाइल फ़ोन पर पाबंदी जारी है, जिससे आम लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ह्यूस्टन से सितंबर की 23 तारीख़ को संयुक्त राष्ट्र में महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने पहुंचेंगे.
27 सितंबर को उनका संबोधन है. उसी दिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी महासभा को संबोधित करेंगे.
इमरान ख़ान ने कहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर
सरकार के इस क़दम के बाद बीबीसी ने दो विरोधी पार्टियों के राजनेताओं, बीजेपी के बैजयंत जय पांडा और कांग्रेस के शशि थरूर से कहा कि भारत सरकार के इस फ़ैसले का मतलब क्या है और इसका क्या असर होगा, इस बारे में वो दोनों अपना अलग-अलग नज़रिया रखें.
उन दोनों के विचार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं और इन्हें एक-दूसरे को जवाब के तौर पर भी नहीं देखा जाना चाहिए.
के हालात पर ही ज़ोर देंगे.
लेकिन भारत ने दो टूक शब्दों में विश्व समुदाय से कह दिया है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का मामला उसका अंदरूनी मामला है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यूयॉर्क में कई देशों के नेताओं से मुलाकातें भी करेंगे.
मोदी न्यूयॉर्क में ब्लूंबर्ग ग्लोबल बिजनस फोरम को भी संबोधित करेंगे और उन्हे गेट्स फ़ाउन्डेशन द्वारा पुरस्कार भी दिया जाएगा.
यहां ध्यान देने वाली बात है कि भारत सरकार के कश्मीर पर उठाए गए क़दम से केवल बीजेपी के कट्टर समर्थक ही नहीं, बड़ी संख्या में आम भारतीय भी उत्साहित हैं. यहां तक कि कई विपक्षी नेताओं ने भी सरकार के इस क़दम का समर्थन किया है.
हालांकि कश्मीरी अलगाववादियों ने इसका कड़ा विरोध भी किया है. जबकि, भारत के कई विपक्षी दलों ने भी सरकार के क़दम पर विरोध जताया है. उनका दावा है कि सरकार का ये क़दम असंवैधानिक है और इसका अंत दुख:द होगा.
लेकिन, आज इस बात का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि सिर्फ़ नाम का बचा संविधान का अनुच्छेद 370, पहले के कुछ दशकों के मुक़ाबले कश्मीर के लोगों के लिए और बुरा साबित होगा.
पिछले दशकों में कश्मीर में 40 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें गईं. भारत और पाकिस्तान के बीच इसकी वजह से दो जंगें भी हुईं और एक सीमित युद्ध भी हुआ.
इसकी वजह से कश्मीर के हज़ारों अल्पसंख्यक हिंदुओं यानी कश्मीरी पंडितों को ज़ुल्म सहने पड़े. इन्हें 1990 के दशक में इस्लामिक चरमपंथ के विस्तार की वजह से कश्मीर घाटी छोड़नी पड़ी थी.
संविधान के अनुच्छेद 370 की वजह से भारत की अदालतों के कई तरक़्क़ीपसंद फ़ैसले और क़ानून कश्मीर पर लागू नहीं हो पाते थे. इनमें बाल विवाह उन्मूलन, दलितों (पहले के अछूत) को अधिकार देने, महिलाओं के प्रति भेदभाव ख़त्म करने और एलजीबीटी समुदाय को अधिकार देने के अलावा
1948 के बाद से भारत ने जम्मू और कश्मीर को भारी पैमाने पर आर्थिक मदद दी. (ये अन्य राज्यों के प्रति व्यक्ति औसत के मुक़ाबले चार गुना ज़्यादा था.) लेकिन, इस आर्थिक मदद का उतना असर ज़मीनी स्तर पर नहीं दिखा.
हालांकि कई सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर कश्मीर, भारत के अन्य क्षेत्रों के बराबर ही है. लेकिन, ये इसके अपने विकास की वजह से नहीं, बल्कि केंद्र सरकार से मिलने वाली मदद का नतीजा है.
कश्मीर का विशेष दर्जा होने की वजह से इसे केंद्र सरकार से मिलने वाले फंड में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी होती थी. इसके अलावा राज्य के सुरक्षा हालात ठीक न होने की वजह से यहां निवेश भी बहुत कम होता था, जिससे कि स्थानीय अर्थव्यवस्था का टिकाऊ विकास हो सके.
अब विशेष दर्जा ख़त्म होने के बाद ये स्थिति नाटकीय रूप से बदल गई. अक्टूबर में कश्मीर में बड़ी कारोबारी बैठक होने वाली है. इसमें देश की कई बड़ी कंपनियों ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर निवेश करने का एलान करने के संकेत दिए हैं. केवल बड़े खिलाड़ी ही नहीं, बहुत से और कारोबारी भी यहां निवेश के लिए उत्सुक हैं.
ज़मीन, पूरे भारतीय उप-महाद्वीप के लिए एक जज़्बाती मसला है. संविधान के अनुच्छेद 370 के चलते भारत के दूसरे हिस्सों के लोग कश्मीर में ज़मीन नहीं ले सकते थे. बल्कि ख़ुद कश्मीरी महिलाएं भी अगर किसी ग़ैर-कश्मीरी से शादी कर लेती थीं, तो कश्मीर में ज़मीन का उनका अधिकार छिन जाता था. आधुनिक और तरक़्क़ी पसंद जम्हूरियत में ऐसे भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है.
हालांकि कई और राज्यों में भी ऐसी पाबंदियां हैं. लेकिन, इनमें और कश्मीर में एक बड़ा फ़र्क़ है. जैसे कि उत्तर भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में एक ख़ास समय सीमा तक रहने के बाद ही दूसरे राज्यों के नागरिक वहां ज़मीन ख़रीद सकते हैं. यानी उन्हें पहले हिमाचल प्रदेश के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर करनी होगी, तब वो वहां ज़मीन ख़रीद सकते हैं. ये अच्छी बात है. लेकिन, लिंग और क्षेत्र के नाम पर लगी पाबंदियां किसी इलाक़े को बाक़ी हिस्सों से काटने का ही काम करती हैं.
भ्रष्टाचार निरोध जैसे क़ानून थे, जो कश्मीर पर लागू नहीं हो सके थे.
पंडित नेहरू की सरकार ने 1949 में संविधान में कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान किया था. इसके तहत कश्मीर को अपना संविधान, अपना झंडा और विशेष दर्ज़ा मिला था. जबकि ऐसा लंबे वक़्त तक नहीं चल सकता था. ख़ुद पंडित नेहरू ने भी ऐसा ही कहा था कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है.
किसी भी सूरत में ये तो सच है कि कश्मीर ने अक्टूबर 1947 में भारत में विलय का फ़ैसला किया था. और वो भी उसी नियम के तहत जिसके ज़रिए बाक़ी की रियासतों का भारत में विलय हुआ था.
इसके बाद सही मायनों में तो अनुच्छेद 370 और इसमें किए गए संशोधन भारतीय संसद के तहत हुए. न तो पाकिस्तान का और न ही किसी और का इस मामले में क़ानूनी हस्तक्षेप था. ये ठीक वैसे ही था, जैसा भारत में विलय करने वाले किसी और राज्य के साथ होता.
अहम बात ये है कि कश्मीर के लोगों को इस बदलाव के बाद भी वही अधिकार हासिल हैं, जो भारत के किसी और इलाक़े में रहने वालों को मिले हैं. उन्हें अब भी चुनाव का हक़ मिलेगा. बराबरी का संवैधानिक अधिकार मिलेगा. जैसे कि देश के अन्य 1.36 अरब लोगों को मिला हुआ है. इनमें देश के 20 करोड़ मुसलमान भी शामिल हैं.
और, हालांकि अब कश्मीर एक संघ प्रशासित क्षेत्र बन गया है, तो अन्य राज्यों के मुक़ाबले इसे कम स्वायत्त अधिकार मिलेंगे. इससे केंद्र सरकार स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर यहां के संसाधनों का सुरक्षा के लिए बेहतर इस्तेमाल कर सकेगी.
ह्यूस्टन में मोदी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें हज़ारों लोगों के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है.
कश्मीर के मुद्दे पर और मोदी सरकार की अल्पसंख्यकों के प्रति नीतियों के खिलाफ़ विरोध करने वालों में बड़ी संख्या में सिख समुदाय के लोग और पाकिस्तानी मूल के लोगों के शामिल होने की उम्मीद की जा रही है.
पाँच अगस्त को कश्मीर में अनुच्छेद 370 को ख़त्म किए जाने के बाद से वहां संचार माध्यमों और मोबाइल फ़ोन पर पाबंदी जारी है, जिससे आम लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ह्यूस्टन से सितंबर की 23 तारीख़ को संयुक्त राष्ट्र में महासभा के वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने पहुंचेंगे.
27 सितंबर को उनका संबोधन है. उसी दिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भी महासभा को संबोधित करेंगे.
इमरान ख़ान ने कहा है कि वह संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर
सरकार के इस क़दम के बाद बीबीसी ने दो विरोधी पार्टियों के राजनेताओं, बीजेपी के बैजयंत जय पांडा और कांग्रेस के शशि थरूर से कहा कि भारत सरकार के इस फ़ैसले का मतलब क्या है और इसका क्या असर होगा, इस बारे में वो दोनों अपना अलग-अलग नज़रिया रखें.
उन दोनों के विचार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं और इन्हें एक-दूसरे को जवाब के तौर पर भी नहीं देखा जाना चाहिए.
के हालात पर ही ज़ोर देंगे.
लेकिन भारत ने दो टूक शब्दों में विश्व समुदाय से कह दिया है कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने का मामला उसका अंदरूनी मामला है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न्यूयॉर्क में कई देशों के नेताओं से मुलाकातें भी करेंगे.
मोदी न्यूयॉर्क में ब्लूंबर्ग ग्लोबल बिजनस फोरम को भी संबोधित करेंगे और उन्हे गेट्स फ़ाउन्डेशन द्वारा पुरस्कार भी दिया जाएगा.
यहां ध्यान देने वाली बात है कि भारत सरकार के कश्मीर पर उठाए गए क़दम से केवल बीजेपी के कट्टर समर्थक ही नहीं, बड़ी संख्या में आम भारतीय भी उत्साहित हैं. यहां तक कि कई विपक्षी नेताओं ने भी सरकार के इस क़दम का समर्थन किया है.
हालांकि कश्मीरी अलगाववादियों ने इसका कड़ा विरोध भी किया है. जबकि, भारत के कई विपक्षी दलों ने भी सरकार के क़दम पर विरोध जताया है. उनका दावा है कि सरकार का ये क़दम असंवैधानिक है और इसका अंत दुख:द होगा.
लेकिन, आज इस बात का अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि सिर्फ़ नाम का बचा संविधान का अनुच्छेद 370, पहले के कुछ दशकों के मुक़ाबले कश्मीर के लोगों के लिए और बुरा साबित होगा.
पिछले दशकों में कश्मीर में 40 हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें गईं. भारत और पाकिस्तान के बीच इसकी वजह से दो जंगें भी हुईं और एक सीमित युद्ध भी हुआ.
इसकी वजह से कश्मीर के हज़ारों अल्पसंख्यक हिंदुओं यानी कश्मीरी पंडितों को ज़ुल्म सहने पड़े. इन्हें 1990 के दशक में इस्लामिक चरमपंथ के विस्तार की वजह से कश्मीर घाटी छोड़नी पड़ी थी.
संविधान के अनुच्छेद 370 की वजह से भारत की अदालतों के कई तरक़्क़ीपसंद फ़ैसले और क़ानून कश्मीर पर लागू नहीं हो पाते थे. इनमें बाल विवाह उन्मूलन, दलितों (पहले के अछूत) को अधिकार देने, महिलाओं के प्रति भेदभाव ख़त्म करने और एलजीबीटी समुदाय को अधिकार देने के अलावा
1948 के बाद से भारत ने जम्मू और कश्मीर को भारी पैमाने पर आर्थिक मदद दी. (ये अन्य राज्यों के प्रति व्यक्ति औसत के मुक़ाबले चार गुना ज़्यादा था.) लेकिन, इस आर्थिक मदद का उतना असर ज़मीनी स्तर पर नहीं दिखा.
हालांकि कई सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर कश्मीर, भारत के अन्य क्षेत्रों के बराबर ही है. लेकिन, ये इसके अपने विकास की वजह से नहीं, बल्कि केंद्र सरकार से मिलने वाली मदद का नतीजा है.
कश्मीर का विशेष दर्जा होने की वजह से इसे केंद्र सरकार से मिलने वाले फंड में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी होती थी. इसके अलावा राज्य के सुरक्षा हालात ठीक न होने की वजह से यहां निवेश भी बहुत कम होता था, जिससे कि स्थानीय अर्थव्यवस्था का टिकाऊ विकास हो सके.
अब विशेष दर्जा ख़त्म होने के बाद ये स्थिति नाटकीय रूप से बदल गई. अक्टूबर में कश्मीर में बड़ी कारोबारी बैठक होने वाली है. इसमें देश की कई बड़ी कंपनियों ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर निवेश करने का एलान करने के संकेत दिए हैं. केवल बड़े खिलाड़ी ही नहीं, बहुत से और कारोबारी भी यहां निवेश के लिए उत्सुक हैं.
ज़मीन, पूरे भारतीय उप-महाद्वीप के लिए एक जज़्बाती मसला है. संविधान के अनुच्छेद 370 के चलते भारत के दूसरे हिस्सों के लोग कश्मीर में ज़मीन नहीं ले सकते थे. बल्कि ख़ुद कश्मीरी महिलाएं भी अगर किसी ग़ैर-कश्मीरी से शादी कर लेती थीं, तो कश्मीर में ज़मीन का उनका अधिकार छिन जाता था. आधुनिक और तरक़्क़ी पसंद जम्हूरियत में ऐसे भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है.
हालांकि कई और राज्यों में भी ऐसी पाबंदियां हैं. लेकिन, इनमें और कश्मीर में एक बड़ा फ़र्क़ है. जैसे कि उत्तर भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में एक ख़ास समय सीमा तक रहने के बाद ही दूसरे राज्यों के नागरिक वहां ज़मीन ख़रीद सकते हैं. यानी उन्हें पहले हिमाचल प्रदेश के प्रति प्रतिबद्धता ज़ाहिर करनी होगी, तब वो वहां ज़मीन ख़रीद सकते हैं. ये अच्छी बात है. लेकिन, लिंग और क्षेत्र के नाम पर लगी पाबंदियां किसी इलाक़े को बाक़ी हिस्सों से काटने का ही काम करती हैं.
भ्रष्टाचार निरोध जैसे क़ानून थे, जो कश्मीर पर लागू नहीं हो सके थे.
पंडित नेहरू की सरकार ने 1949 में संविधान में कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान किया था. इसके तहत कश्मीर को अपना संविधान, अपना झंडा और विशेष दर्ज़ा मिला था. जबकि ऐसा लंबे वक़्त तक नहीं चल सकता था. ख़ुद पंडित नेहरू ने भी ऐसा ही कहा था कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है.
किसी भी सूरत में ये तो सच है कि कश्मीर ने अक्टूबर 1947 में भारत में विलय का फ़ैसला किया था. और वो भी उसी नियम के तहत जिसके ज़रिए बाक़ी की रियासतों का भारत में विलय हुआ था.
इसके बाद सही मायनों में तो अनुच्छेद 370 और इसमें किए गए संशोधन भारतीय संसद के तहत हुए. न तो पाकिस्तान का और न ही किसी और का इस मामले में क़ानूनी हस्तक्षेप था. ये ठीक वैसे ही था, जैसा भारत में विलय करने वाले किसी और राज्य के साथ होता.
अहम बात ये है कि कश्मीर के लोगों को इस बदलाव के बाद भी वही अधिकार हासिल हैं, जो भारत के किसी और इलाक़े में रहने वालों को मिले हैं. उन्हें अब भी चुनाव का हक़ मिलेगा. बराबरी का संवैधानिक अधिकार मिलेगा. जैसे कि देश के अन्य 1.36 अरब लोगों को मिला हुआ है. इनमें देश के 20 करोड़ मुसलमान भी शामिल हैं.
और, हालांकि अब कश्मीर एक संघ प्रशासित क्षेत्र बन गया है, तो अन्य राज्यों के मुक़ाबले इसे कम स्वायत्त अधिकार मिलेंगे. इससे केंद्र सरकार स्थानीय प्रशासन के साथ मिलकर यहां के संसाधनों का सुरक्षा के लिए बेहतर इस्तेमाल कर सकेगी.
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